Sunday, February 7, 2010

समुद्र-स्वप्न


जिस की शेषशय्या परतुम्हारे साथ युगों-युगों तक क्रीड़ा की है

आज उस समुद्र को मैंने स्वप्न में देखा कनु!


और इस क्षण

केवल अपने में डूबे हुए

दर्द में पके हुए

तुम्हें बहुत दिन बाद मेरी याद आयी है!

काँपती हुई दीप लौ जैसे

पीपल के पत्ते

एक-एक कर बुझ गये

उतरता हुआ अँधियारा

समुद्र की लहरें अब तुम्हारी फैली हुई साँवरी शिथिल बाँहें हैं

भटकती सीपियाँ तुम्हारे काँपते अधर


और अब इस क्षण तुम

केवल एक भरी हुई

पकी हुई

गहरी पुकार हो

सब त्याग कर

मेरे लिए भटकती हुई...

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